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Agri Bharat Samachar -  Indore, Jhabua and MP Hindi News

अग्रि भारत समाचार से ब्यूरो चीफ भगवान मुजाल्दा की रिपोर्ट

Birsa was a social lover since childhood.

धार ।  सिंहभूमि पर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आवाज बुलंद कर साहस, वीरता और आत्मसम्मान कि शाही से पुरुषार्थ के पृष्ठों पर शौर्य कि शब्दावली रचे थे, 25 साल कि युवा उम्र में समाज ओर देशप्रेम का पैगाम देकर इतिहास में हमेशा के लिये अमर हो गये है। जिन पर देश के हर नागरिको को गुमान और नाज है। उलगुलान का आगाज समस्त मानवजाति के अस्तित्व के लिये था। देश कि स्वतंत्रता और समाज कि सभ्यता कि रक्षा के लिये कुर्बानी देने के लिये एक सेकंड भी नहीं रुके एवम् एक इंच भी पीछे नहीं हटे ऐसी महान शख्सियत को हजारो नमन !

"कानून शोषण का हथियार न बने, आम लोगो के विकास के लिये होना चाहिये"

बिरसा ने गुलामी के खिलाफ जंग क्या होती है? उन्होंने अपने बलिदान से बता दिया था, ये जानकरी हम सब मिलकर आने वाली नस्लो को देना चाहिये ।

समाज का सुपर पॉवर बिरसा


जन्म एवम् शिक्षा :---

सुगना मुंडा और करमी हातु के पुत्र बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को बिहार के उलीहातू गांव-जिला रांची में हुआ था, वर्तमान में रांची झारखण्ड कि राजधानीें है। बचपन बहुत ही गरीबी में बिता, फिर भी हार नहीं माने, इस कारण से पलायनवादी जीवन भी जीने के लिये मजबूर हुये, झारखण्ड क्षेत्र में लूथरन मिशनरियो के कारण शिक्षा भी ईसाई मिशनरी स्कूल में हुई । पढ़ाई के दौरान बिरसा को हिन्दू धर्म का भी ज्ञान मिला। लेकिन वे आदिवासीयत को अच्छी तरह जानते थे। साल्गा गाँव में प्रारम्भिक पढाई के बाद वे चाईबासा इंग्लिश मिडिल स्कूल में पढने आये। इनका मन हमेशा अपने समाज की ब्रिटिश शासकों द्वारा की गयी बुरी दशा पर सोचता रहता था। उन्होंने मुंडा लोगों को अंग्रेजों से मुक्ति पाने के लिये अपना नेतृत्व प्रदान किया। 1894 में मानसून के छोटानागपुर में असफल होने के कारण भयंकर अकाल और महामारी फैली हुई थी। बिरसा ने पूरे मनोयोग से अपने लोगों की सेवा की।


मुंडा विद्रोह का नेतृत्‍व :---

1 अक्टूबर 1894 को नौजवान नेता के रूप में सभी मुंडाओं को एकत्र कर इन्होंने अंग्रेजो से "लगान" माफी के लिये आन्दोलन किया। 1895 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गयी। लेकिन बिरसा और उसके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी और अपने जीवन काल में ही एक महापुरुष का दर्जा पाया। उन्हें उस इलाके के लोग "धरती अाबा" के नाम से पुकारा और पूजा जाता था। उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी।

मानकी मुंडा भी अंतिम साँस तक बिरसा को साथ दिया ।


व्यक्तित्व :-- बिरसा बचपन से ही समाज प्रेमी थे, समाज कि निंदा उन्हें पसंद नहीं था, इस कारण से स्कूल से भी निष्कासित हुये, बलशाली और वैचारिक थे। तुइला और बांसुरी पसंदीदा वाद्य यंत्र था।

सिंगबोगा ( सूरज ) के उपासक थे। सिंहभूमि पर भयंकर अकाल पड़ने के कारण बिरसा ने लोगो कि सेवा किया । इस कारण से लोग उन्हें धरती आबा के नाम से पुकारते है। भगवान के नाम से मशहूर होकर बिरसा आदिवासी समाज में पूजनीय हो गए ।


समाज में वैचारिक जन जागरूकता :---

बिरसा ने देखा अंग्रेजो कि चाटुकारिता करने वाले कुछ भारतीय जमीदारो, ठेकेदारो, जहागीरदारो तथा अंग्रेजी हुकूमत के शोषण, अत्याचार और लूट कि भट्टी में आदिवासी समाज झुलस रहा है। छलकपट से समाज के लोगो को ब्याज के नाम पर झूठे रहनुम्मा बनने कि कवायद चला रहे है। समाज कि सम्पत्ति पर कब्जा जमाने में लगे है। क्षेत्र में सीमेंट फेक्टरीयो के नाम पर पूँजीवाद जन्म ले रहा है। क्रूरता, दमन, अत्याचार, लूट का वर्चस्व कायम होने लगा। इस कारण से समाज कि सामाजिक परम्पराये , रीतिरिवाज , सभ्यताए और सांस्कृतिक धरोहर बिखरने लगी है। प्राकृतिक संसाधनों को लूटने में आदिवासी अंग्रेजो के लिये रास्ते के कांटे लगते थे, जिन्हें हटाना बहुत जरुरी था। इस कारण से अंग्रेजी हुकूमत अवसरवादियों से मिलकर आदिवासियों पर अत्याचार करना शुरू कर दिया। 

जल, जंगल,जमीन को हड़पने के लिये वैकल्पिक तौर पर लगान लगा दिया । इस कारण से आदिवासी समाज में विरोध कि लहार चलने लगी । बिरसा ने गॉव- गॉव जाकर जन जगरुकता लाये ।


बिरसा का नारा:-- "आबुआ दिशोम रे, आबुआ राज"

"उलगुलान" का आगाज किया।

इस कारण से बिरसा के साथ महिलाये, बूढे- बच्चे एवम् समाज का कारवाँ चलने लगा । 


संघर्ष का दौर:--

अंग्रेजों ने जब आदिवासियों से उनके जल, जंगल, जमीन को छीनने की कोशिश की तो उलगुलान यानी आंदोलन हुआ। इस उलगुलान का ऐलान करने वाले बिरसा मुंडा ही थे। बिरसा मुंडा ने ' 

"अंग्रेजों अपनो देश वापस जाओ" 

का नारा देकर उलगुलान का ठीक वैसे ही नेतृत्व किया जैसे बाद में स्वतंत्रता की लड़ाई के दूसरे नायकों ने इसी तरह के नारे देकर देशवासियों के भीतर जोश पैदा किया। इन नारो के माध्यम से समाज में आत्मसम्मान, आत्मविश्वास और आत्मगौराव भरना चाहते थे।

"रानी का शासन खत्म करो और हमारा साम्राज्य स्थापित करो"

"लगान हम नहीं देंगे"

"हम ब्रिटिश शासन तंत्र के विरोध में विद्रोह कि घोषणा करते है, और कभी भी अंग्रेज नियमो का पालन नहीं करेंगे। औ गौरी चमड़ी वाले अंग्रेजो, तुम्हारा हमारे देश में क्या काम है ? छोटा नागपुर सदियो से हमारा है, तुम इसे हमसे छीन नहीं सकते, इसलिये बेहतर है,कि वापस अपने देश लौट जाओ, वर्ना विद्रोह का सामना करने के लिये तैयार हो जाओ"

"निर्भय बनो ! अंग्रेजो कि बंदूके काठ में बदल जायेगी, गोलिया पानी के बुलबुले बन जायेगी।"

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खास बात यह भी मानी जाती है कि बिरसा मुंडा से पहले जितने भी विद्रोह हुए, वह जमीन बचाने के लिए हुए, लेकिन बिरसा मुंडा ने तीन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए उलगुलान किया। पहला, वह जल, जंगल, जमीन जैसे संसाधनो की रक्षा करना चाहते थे। दूसरा, नारी की रक्षा और सुरक्षा तथा तीसरा, वे अपने समाज की संस्कृति की मर्यादाओ को बनाए रखना चाहते थे। 

बिरसा मुंडा ने 1894 में सभी मुंडाओं को संगठित कर अंग्रेजों से लगान माफी के लिए आंदोलन चलाया। सन् 1895 में उन्हें गिरफ्तार कर हजारीबाग केंद्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गई। भारतीय दंड संहिता कि धारा 353 और 505 के तहत गिरफ्तारी वारंट निकाल कर दो साल के लिये जेल भेज दिया गया । 50 रूपए जुर्माना रखा था। बाद में बिरसा मुंडा जेल से बाहर आए तो उन्हें यह अनुभव हुआ कि विद्रोह के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है, क्योंकि ब्रिटिश सत्ता कानूनों की आड़ में आदिवासियों को घेर रही है और उनसे किसी राहत की मांग करना फिजूल है। इतिहास गवाह है कि 1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे। बिरसा मुंडा और उनके चार सौ साथियों ने वर्ष 1897 में तीर कमानों से खूंटी थाने पर धावा बोला, जंगलों में तीर और कमान उनके सबसे कारगर हथियार रहे हैं। वर्ष 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेजी सेनाओं से हुई, जिसमें अंग्रेजी सेना हार गई। बाद में उस इलाके से बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ्तारियां हुईं। जनवरी 1900 में डोमबाड़ी पहाड़ी पर एक संघर्ष हुआ था, जिसमें बहुत से बच्चे और औरतें भी मारी गई थीं, उस जगह बिरसा मुंडा अपनी जनसभा को संबोधित कर रहे थे। दरअसल बिरसा के जेल से आने के बाद अंग्रेजी सरकार ने समझ लिया कि बिरसा उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती है। उन्हें घेरने की हर संभव कोशिश भी बेकार साबित हो रही थी। अंग्रेजी सरकार ने यह रणनीति बनाई कि कई तरह के अभावों से जूझ रहे आदिवासियों के बीच उस व्यक्ति की खोज की जाए, जो कि सबसे कमजोर हो और जो उनके लालच में आ सके।

जराई केला के रोगतो गांव के सात मुंडाओं ने 3 फरवरी 1900 को 500 रुपए इनाम के लालच में सोते हुए बिरसा मुंडा को खाट सहित बांधकर बंदगांव लाकर अंग्रेजों को सौंप दिया। अदालत में बिरसा पर झूठा मुकदमा चला, उन्हें जेल में डाल दिया गया। हजारीबाग़ और रांची जेल में भी रखा गया । 


बिरसा के दौर में आदिवासी विद्रोह :-

मुंडा विद्रोह, चुआर विद्रोह, संथाल विद्रोह, कोल विद्रोह आदि ।

विद्रोह कि लहार पुरे देश में चल रही थी।


बिरसा से जुड़े दस्तावेज :--

बिरसा के आंदोलन से संबंधित छोटानागपुर के कमिश्नर को लोहरदगा के डिप्टी कमिश्नर के अनेक पत्र, एसपी द्वारा डिप्टी कमिश्नर को लिखे पत्र बिहार राज्य अभिलेखागार में मौजूद हैं. इन पत्रों की प्रति-मूल प्रति छोटानागपुर के कमिश्नर के रिकार्ड रूम में होना चाहिए था.

इन पत्रों को सहेज कर नहीं रखा गया. बिरसा मुंडा रांची जेल में थे, फिर हजारीबाग सेंट्रल जेल में गये. इन जेलों में भी बिरसा से संबंधित दस्तावेज नहीं मिलते. या तो ये दस्तावेज नष्ट हो गये, किसी ने फेंक दिया या किसी कोने में धूल जमे लाल रंग के कपड़े में बंधा सड़ रहा होगा. इन ऐतिहासिक दस्तावेजों को खोज कर सुरक्षित रखने की जरूरत है.

दुनिया में कई जगहों पर बिरसा से संबंधित दस्तावेज हैं. इसकी प्रति को झारखंड भी लाया जा सकता है, लेकिन इसके लिए गंभीर प्रयास करने होंगे. ऐसा तभी होगा, जब बिरसा पर शोध संस्थान बने, जब यह सरकार की प्राथमिकता में आये. यह ऐतिहासिक धरोहर है. बिरसा से संबंधित दस्तावेज बिहार राज्य अभिलेखागार के अलावा पटना के काशी प्रसाद जायसवाल शोध संस्थान, नेशनल आर्काइव्स ऑफ इंडिया (कोलकाता) में भी उपलब्ध है. 

तब बिहार या झारखंड नहीं बना था. बंगाल के तहत यह क्षेत्र था. बंगाल में ही मुकदमा चला था. इसलिए अनेक दस्तावेज बंगाल सरकार के पास हो सकते हैं. इसके अलावा लंदन की लाइब्रेरी में भी अनेक दस्तावेज हैं. बिरसा के आंदोलन के समय इस क्षेत्र में मिशनरी का आगमन हो चुका था. उन दिनों मिशन से जुड़े अनेक व्यक्ति इस क्षेत्र में आते थे. अपनी डायरी लिखते थे. फादर जेबी हॉफमैन 1893 से 1915 तक इस क्षेत्र में रहे. उनकी डायरी में बिरसा मुंडा और मुंडा विद्रोह के बारे में अनेक जानकारियां हैं. ये दस्तावेज जर्मनी में हैं. 

बर्लिन के गोस्सनर मिशन के स्टोर में मिशन इंस्पेक्टर डॉ कार्ल हाइनराइस द्वारा लिखा गया दस्तावेज (1895) उपलब्ध है जिसमें बिरसा मुंडा के पहले चरण के आंदोलन का आंखों-देखा विवरण है. इसकी मूल प्रति जर्मन में है जिसका अंगरेजी अनुवाद रेवरेंड जोहानेस जैपिंग ने किया है. आंदोलन के दौरान जो भी अंगरेज अफसर इस क्षेत्र में थे, ब्रिटेन लौटने पर उन्होंने वहां किताबें लिखीं. बिरसा मुंडा पर झारखंड में दो लोगों ने ज्यादा काम किया. पहले थे एसपी सिन्हा (1964), जो जनजातीय शोध संस्थान के निदेशक के पद तक पहुंचे थे. दूसरे थे कुमार सुरेश सिंह (आयुक्त). अब ये दोनों दिवंगत हो चुके हैं, लेकिन बिरसा मुंडा से जुड़े अनेक दुर्लभ दस्तावेजों को इन लोगों ने संकलित कर रखा था. संभव हो कि ये दस्तावेज अभी भी उनके घरों में हो.

बिरसा मुंडा के बारे में लोग जानना चाहते हैं. हालात यह है कि बिरसा मुंडा की तीन ही तसवीरें दुनिया में दिखती हैं. पहली तसवीर एससी राय (1912) के सौजन्य से बाहर आयी थी. एक अन्य तसवीर में बिरसा पुलिसकर्मियों से घिरे और जंजीर से बंधे दिखते हैं. तीसरी तसवीर ‘ट्राइबल इन द लैंड ऑफ मुंडाज : स्टोरी एंड नोट्स ऑफ ए मिशनरी ’(लेखक एच बैन डॉयल, ब्रुसेल्स, वर्ष 1900) पुस्तक से ली गयी है. बिरसा की चौथी तसवीर (स्केच नहीं, मूल तसवीर) कहीं दिखती नहीं. 

बिरसा मुंडा बड़े आंदोलनकारी थे और उनका निधन रांची जेल में (वर्ष 1900 में) हुआ था. सवाल यह है कि क्या बिरसा मुंडा के निधन के बाद क्या जेल के अधिकारियों ने उनके शव की या अंत्येष्टि की तसवीर ली थी. अगर हां, तो वह कहां है? इस पर किसी ने काम नहीं किया. अंगरेज अफसर डॉक्यूमेंटेशन पर बहुत ध्यान देते थे. इसलिए इस बात की संभावना है कि बिरसा की गिरफ्तारी या मौत के बाद भी अंगरेज अफसरों ने तसवीर ली होगी. संभव हो, ये तसवीरें जेल के रिकार्ड या ब्रिटेन में मौजूद हों.

115-120 साल पहले के कागजातों को खोजना आसान नहीं होता. लेकिन सरकार चाहे तो यह असंभव भी नहीं है. अभी भी वक्त है, जो दस्तावेज झारखंड में नष्ट हो रहे हों, उन्हें खोज कर सुरक्षित रखा जाये, उन्हें डिजिटल फार्म में परिवर्तित कर संरक्षित कर लिया जाये. 

रांची, हजारीबाग जेल के अलावा कमिश्नर के कार्यालय के रिकार्ड को खंगाला जाये, तो संभव है कि कुछ दस्तावेज कंडम हालत में मिल भी जायें. काम आगे बढ़ सकता है, लेकिन यह तभी संभव है जब बेहतर शोध संस्थान बने 


बिरसा मुंडा के नाम पर योजनाऐ:---

एकमात्र आदिवासी क्रन्तिकारी जिनकी तस्वीर देश के संसद भवन में टंगी है, जिनके नाम पर दर्जनों सरकारी योजनाएं चलती हैं. बिरसा एयरपोर्ट, बिरसा बस टर्मिनल, बिरसा जूलोजिकल पार्क, बिरसा स्टेडियम आदि दर्जनों महत्वपूर्ण संस्थाओं का नामकरण जिनके नाम पर हुआ है, बिरसा के जन्म दिन को ही झारखण्ड राज्य स्थापना दिवस के रूप में मनाया जाता है। देश के प्रधानमंत्री भी 15 अगस्त के अवसर पर अपने सन्देश में बिरसा मुंडा जी को याद करते हुए कहा है, आदिवासियों के लिये स्थाई म्यूजियम बनाने का ऐलान किये है।

भारत सरकार के आधिकारिक रिकॉर्ड में बिरसा आज भी देश द्रोहियो के लिस्ट में है। शहीद का अधिकारीक प्रमाणीकरण लिखित दर्जा नहीं है।


मृत्यु:----

बिरसा को 3 फरवरी सन्‌ 1900 ई. को चक्रधरपुर में गिरफ्तार कर लिया। उनके साथ उनके अनेक समर्थकों को भी गिरफ्तार कर लिया गया। बहुत ही विवादास्‍पद स्‍थिति में रांची जेल में 9 जून सन्‌ 1900 ई. को बिरसा ने दुनिया छोड़ दिया। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि बिरसा की मृत्‍यु हैजे से नहीं बल्‍कि उन्‍हें उत्‍पीड़ित कर मार डाला गया था।

आज भी बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा मुण्डा को भगवान की तरह पूजा जाता है।

बिरसा मुण्डा की समाधि राँची में कोकर के निकट डिस्टिलरी पुल के पास स्थित है। वहीं उनका स्टेच्यू भी लगा है। उनकी स्मृति में रांची में बिरसा मुण्डा केन्द्रीय कारागार तथा बिरसा मुंडा हवाई-अड्डा भी है।


जनश्रुतियों के अनुसार बिरसा को रांची जेल में अनेको यातनाये देकर उत्पीड़ित किया गया । बाद में धीमा जहर देकर मार दिया गया। अग्रेज हुकूमत डर गई थी, बिरसा कि लाश को जेल के सामने वाले दरवाजे से नहीं निकाल पा रहे थे, क्योंकि जेल के सामने तमाम शुभ चिंतको कि भीड़ थी, अगर ये भीड़ बिरसा कि लाश देख लेती तो बेकाबू होकर रांची जेल को तहस नहस कर देती, इस कारण से अंग्रेजो ने बिरसा कि लाश को रांची जेल से बहार निकालने का विकल्प जेल कि पीछे कि दीवारो में छेद करके निकाला गया । रांची जेल से 4-5 किलोमीटर दूर कोकर नामक इलाके में फेक दिया गया। 2-3 दिन बाद लाश को जलाये ।

बिरसा झारखण्ड का सबसे चर्चित नाम है, आज भी वहाँ के गीतों में, लोककथाओं एवम् कहानियो में सुनने को मिलता है।

प्रेरणास्रोत :---- वर्तमान परिपेक्ष्य में देश के कई राज्यो में बिरसा के विचारधाराओ के अनुसार जनआन्दोलन चलाये जा रहे है। बिरसा सम्पूर्ण भारत कि आन, बन और शान है। इसलिये बिरसा कि मुर्तिया भी कई जगह लगाईं जा रही है। झारखण्ड कि वर्तमान सरकार बिरसा कि बेड़ियों वाली मूर्तियो से बेड़िया हटाना चाहती है, इस बात का आदिवासी सामाजिक जन संगठन विरोध कर रहे है, संगठनो ने तर्क देकर कहा है, बिरसा के हाथपैरो में बेड़ियो वाली मुर्तिया अंग्रेजो के खिलाफ उलगुलान का प्रतिक है। यही बेडियो के माध्यम से आने वाली पीढ़ियों को आदिवासियों कि कुर्बानियो का इतिहास ज्ञात होगा ।

वर्तमान परिपेक्ष्य:----देश का मुख्य मीडिया बिरसा पर विस्तार से चर्चा नहीं कर रहा है। न्यूज़ पत्रिकाये, भी महत्व नहीं दे रही है। राजनेता भी बिरसा के गॉव तक जा रहे है। लेकिन बिरसा के विचारो को नहीं पढ़ रहे है। बिरसा का "उलगुलान" के सपने अभी अधूरे है। वर्तमान सिंहभूमि पूँजीवाद एवम् औद्दोगिकरण के दंश झेल रही है। जिस समाज के लिये बिरसा और उनके हजारो साथियो ने कुर्बानिया दिया है। उस समाज कि हालाद कैसे है ? जिस सभ्यता और संस्कृति के अस्तित्व के लिये कुर्बानिया हुई है। उनका पालन हो रहा है? झारखण्ड में आदिवासियों कि जनसंख्या कम क्यों हो रही है ? उनकी जमीन उनकी पास क्यों नहीं है? झारखण्ड कि बेटिया बड़े बड़े शहरों में मानसिक, आर्थिक और शारिरिक शोषण का शिकार क्यों हो रही है ? बच्चे कुपोषण के शिकार क्यों हो रहे है ?

ये तमाम सवाल खड़े हो रहे है। इसका जिम्मेदार कौन है ?

झारखण्ड के आदिवासियों ने इतिहासिक लड़ाईया लड़कर अग्रेजो को आदिवासियों के लिये अलग कानून बनाने के लिये मजबूर कर दिये थे। आज उसी कानून को वर्तमान सरकार बदलने कि बात कर रही है।

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